जय और पराजय

जीवन हर पल एक रण है। कोई भी स्थिति हो या कोई भी काल, अंधेरा हो या रोशनी, खुशी हो या गम, जीवन संघर्ष हमेशा जारी रहता है। दुख के समय से तो हम जूझते ही हैं, पर खुशी के पलों को आगे तक सहेज कर रखना भी एक चुनौती है। तो, इस जीवनव्यापी जद्दोजहद के दौरान हम क्या कर सकते हैं? चीन के महान विचारक सुन जू का कहना है कि हम उसे एक कला बना सकते हैं। रण की कला- द आर्ट ऑफ वार- चीनी विचारक सुन जू की पतली-सी, पर बेहद प्रभावशाली किताब है, जो इस युद्ध कौशल को छोटीछोटी हिदायतों के जरिए बड़े विस्तार से समझती है। जू का जीवन काल 544 से 496 ईसा पूर्व था, यानी आज से लगभग छब्बीस सौ साल पहले। प्राचीन इतिहास काल के इस चिंतक ने युद्ध कला की व्याख्या जिस पांडित्य से की है, उसकी आज तक कोई मिसाल नहीं है। मास्टर सुन ने अपनी रचना में वास्तविक युद्ध के लिए उपयोगी सूत्रों को लिखा है और इसलिए विश्व भर के सेनानायक, जैसे फ्रांस के नेपोलियन, चीन के माओ, क्यूबा के फिदेल कास्त्रो, रूस के स्टालिन और अमेरिका के जनरल डगलस मैकआर्थर ने उसका उपयोग अपनी रणनीति बनाने के लिए करते रहे हैं। पर आर्ट ऑफ वॉर का उपयोग केवल इतना नहीं है। वह हर आम जीवन में हो रहे निरंतर संघर्ष पर विजय पाने के लिए बेहद सार्थक अध्ययन है। कॉर्पोरेट दुनिया में दशकों से इसका उपयोग तीखी प्रतिस्पर्धा में रणनीति बनाने के लिए किया जाता रहा है। साथ ही, राजनीति में जू के सूत्रों का विशेष महत्त्व है, क्योंकि वास्तविक युद्ध और राजनीतिक पैंतरे एक सिक्के के दो पहलू हैं, जिसमें सिक्का सत्ता है। मास्टर सुन जू का कहना है कि छल, कपट और धोखा युद्ध कौशल में स्वाभाविक रूप से निहित होते हैं और जो सेनानायक धोखा देने में निपुण नहीं है, वह कभी युद्ध नहीं जीत सकता। उनका कहना है कि सेनानायक को ऐसा कपट करना चाहिए कि जब वह आक्रमण करने को पूरी तरह तैयार हो तो प्रतिद्वंद्वी को लगे कि वह उस वक्त आक्रमण करने की स्थिति में नहीं है। जब वह सेना को सक्रिय कर रहा हो, तो लगे कि शिथिल है और जब मजबूत हो, तो प्रतिद्वंद्वी उसे कमजोर समझे। इसके साथ सेनानायक को डर और प्रलोभन का चारा भी दुश्मन की फौज के सामने समय-समय पर डालते रहना चाहिए। विचारक का कहना है कि दुश्मन का डर अक्सर कारगर तो होता है, पर प्रलोभन उससे भी ज्यादा प्रभावपूर्ण होता है। यद्ध शरू होने से पहले प्रभावी सेनानायक को इन दो प्रकार के छलों को उपयोग में लाना चाहिए, क्योंकि लड़ कर लड़ाई जीतने से बेहतर बिना युद्ध किए जीत जाना होता है। जू कहते हैं कि अगर सेनानायक अपने को और अपने प्रतिद्वंद्वी को समझता है, तो उसको सौ युद्धों के परिणाम की चिंता नहीं होती है। वह हमेशा जीतेगा। अगर वह अपने को समझता है, पर दुश्मन को नहीं, तो हर एक जीत के बाद एक हार उसके हिस्से में आएगी। और अगर वह न अपने को समझता है और न ही दूसरे को, तो हर युद्ध में वह मुंह की खाएगा। जू कहते हैं कि जय पाने के लिए नायक को पराजय की संभावना को खत्म कर देना चाहिए। दूसरे शब्दों में, युद्ध में जाने से पहले अपने को ऐसी स्थिति में ले आना चाहिए कि जहां से हार संभव ही न हो। वे कहते हैं कि हार से अपने को सुरक्षित करना हमारे अपने हाथ में है, जबकि प्रतिद्वंद्वी अपनी हार का मौका खुद प्रदान करता है। नायक को अपने को पूर्णत-सुरक्षित करने के बाद, उस मौके का इंतजार करना चाहिए, जब प्रतिद्वंद्वी खुद-ब-खुद अपनी हार उसको थमा दे। इस तरह की जीत को परी जीत कहा जाता है। ज कहते हैं कि साहस और बुद्धिमता नायक के लिए उतनी जरूरी नहीं है जितनी कि उसकी गलती न करने की क्षमता है। इसलिए नायक को साहसी से ज्यादा चतुर होना चाहिए। युद्ध आमने-सामने होकर लड़ा जा सकता है, पर जीता जाता है परोक्ष वार से। प्रत्यक्ष और परोक्ष वारों को साथ-साथ चलना चाहिए, एक घेरा बना कर, जिससे दुश्मन को यह पता न चले कि कौन-सा वार कब खत्म हुआ और दूसरा कब शुरू हुआ। इनके चलते प्रतिद्वंद्वी भ्रम के घेरे में फंस जाता है और उसके पैर उखड़ जाते हैं। मास्टर सुन जू कहते हैं कि निपुण सेनानायक आक्रमण उस जगह करता है, जहां उसका प्रतिद्वंद्वी यह न समझ पाए कि क्या बचाव करे और अपना बचाव इस तरह करता है कि दूसरा यह न समझ पाए कि वह कहां आक्रमण करे। भ्रम फैलाना युद्ध का सबसे घातक हथियार है। सफल नायक प्रतिद्वंद्वी को हमेशा भ्रम की स्थिति में रखता है। इससे विपक्षी नायक उलझन में फंस जाता है और अपनी फौज को सपष्ट निर्देश नहीं दे पता है। ऐसा होते ही फौज विघटित हो जाती है। सिपाहियों में संगठित उद्देश्य नष्ट हो जाता है और वह अपने नायक को नाकाबिल मानाने लगते हैं। उनका मनोबल गिर जाता है। वे अक्षम हो जाते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य अस्पष्ट हो जाता है। जोश को हताशा डस लेती है। जू के अनुसार, फौज को जुटाने के लिए और रण में पूरी तरह से दिशा निर्देश देने के लिए चिह्नों और पताकाओं का विशेष महत्त्व है। सेनानायक युद्ध से दूर बैठ कर भी इनके माध्यम से सैनिकों को रणनीति के तहत चला सकता है। इसीलिए युद्ध संचालन के लिए, जू कहते हैं, पताकाओं और विशिष्ट चिह्नों का होना आवश्यक है। जो भी सेनानायक पताका के बिना युद्ध में जाएगा, वह हार कर ही लौटेगा। वास्तविक युद्ध हो, कॉर्पोरेट रणनीति या वोट की राजनीति दृश्य प्रतीकों के बिना जय अदृश्य रहती है