कोरोना कितना फैलेगा, क्या-क्या कहर ढाएगा, कब थमेगा, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन अभी तक के घटनाक्रम से एक बात तो स्पष्ट है कि ऐसी बीमारियों से अकेले नहीं निपटा जा सकता। हमारे देश की तालाबंदी जिस तरह से लागू हुई उसने इस बुनियादी तथ्य को नजरंदाज कर दिया कि गरीब, मजदूर, दिहाड़ीदार का क्या होगा, बेघर का क्या होगा? झुग्गी- झोपड़ी में ठस कर रहने वालों का क्या होगा? अपने घर से दूर तात्कालिक काम के लिए गए किसी भी व्यक्ति का क्या होगा? तालाबंदी लागू करने से पहले इन के बारे में कोई योजना नहीं बनाई गई। तालाबंदी लागू होगी, इसकी कई हफ्तों से चर्चा थी, कम से कम चीन, इटली इत्यादि में लागू होने के बाद तो यह आईने की तरह साफ़ था कि देर-सवेर यह हमारे देश में भी लागू होगी। क्या इसको एकदम से लागू करने की बजाय घोषणा के 3-4 दिन बाद से या कदम दर कदम लागू नहीं किया जा सकता था? पहले बाकी दफ्तर इत्यादि बंद होते और फिर कुछ दिन बाद यातायात बंद होता? आप कह सकते हैं कि ऐसे करने से लोगों की आवाजाही बहुत बढ़ जाती। यह सही है ऐसा होता। परन्तु विकल्प क्या है? या तो आप लोगों की जहां हैं वहां रोकने की व्यवस्था कीजिए या फिर उन्हें अपने ठिकाने पर पहुंचने दें। आवाजाही तो अब भी हो रही है, अब पैदल हो रही है, भूखे-प्यासे हो रही है, तब बसों और गाड़ियों से होती, थोड़ी सुविधाजनक होती। यात्रियों की कमी के चलते गाड़ियां बंद करने से पहले लोगों को अपने ठिकाने पर पहुंचने का मौका तो देना चाहिए था। इसके साथ ही, स्थानीय स्तर पर इन तबकों के रहने, खाने की पहले सार्वजानिक व्यवस्था होनी चाहिए थी क्योंकि झुग्गी-झोपड़ी और मजदूर बस्तियों में न एक मीटर की दूरी रखना संभव है और न संक्रमित व्यक्ति का 14 दिन का एकांतवास संभव है। फिर बेघर लोग भी हैं। खाली पड़े स्कूलस्टेडियमों में इनकी व्यवस्था करना संभव था। यह भी भरोसा नहीं है कि इनके अपने गांवों में इनका कैसा स्वागत होगा आखिर बाहर से आने वालों से आज के दिन सब डर रहे हैं। इसलिए यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर गांव व शहर में बाहर से आने वालों के लिए एकांतवास की सार्वजनिक व्यवस्था हो ताकि न बाहर से आने वाले परेशान हों और न स्थानीय बाशिंदे। समस्या इन गरीब, दिहाड़ीदार तबकों की तो है ही पर केवल इनकी नहीं है। छूत की बीमारी जब किसी को भी लगती है तो ये सबके लिए खतरा बन जाती है। केवल एकमात्र उपाय परस्पर दूरी बनाकर रहना है, जिसे करोड़ों लोग कष्ट सहन कर, नुकसान सहकर निभा भी रहे हैं। उन करोड़ों लोगों के लिए यह कष्ट बेमानी हो जाएगा, अगर लाखों और लोगों को एकांतवास, शारीरिक दूरी बनाने या भूख सहने में से एक को चुनना पड़ता है, जिनके लिए अपने घरों में भी शारीरिक दूरी बनाकर रहना संभव नहीं है। ऐसे में कोरोना वायरस के फैलाव को रोका नहीं जा सकेगा, चाहे तालाबंदी की अवधि कितनी भी बढ़ा लीजिए। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि ये लोग न कोरोना के लिए जिम्मेदार हैं और न लापरवाह बल्कि कोरोना पीड़ित हैं। ये लोग न यहां घूमने-फिरने आए हैं और न ही अपनी मर्जी से मौज-मस्ती के लिए झुग्गी- झोपड़ी में रहते हैं। देश के उत्पादन में इनका महत्वपूर्ण योगदान है और रहेगा। इनके बिना देश नहीं चल सकता, अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर नहीं आ सकती। इन तबकों की हालत बाबत सरकार देरी से जागी है और स्थानीय प्रशासन को आदेश दिए हैं कि स्वयंसेवी संस्थाओं, धार्मिक संस्थाओं की सहायता से ऐसे लोगों के लिए व्यवस्था करे। कुछ सरकारी पहल भी हुई पर इस काम को सरकार आम जनता की दरियादिली के भरोसे क्यों छोड़े? किसी एक व्यक्ति या संस्था की सीमा है-एक दिन खिलाये, दो दिन खिलाये, मन करे सौ को खिलाये, मन करे हजार को खिलाये। हर व्यक्ति की देखभाल की प्राथमिक जिम्मेदारी प्रशासन की होनी चाहिए। किसी को यह न कहना पड़े कि 'मैं कुछ दिन घर में नहीं रह सकता वरना महामारी से पहले भूख से मर जाऊंगा।' यह उसका अधिकार है और देश को इस महामारी से बचाने की जरूरत है। ऐसी व्यवस्था कोरोना से लड़ने की हमारी रणनीति का हिस्सा होना चाहिए। सवाल है कि जब दूसरे देश में फंसे भारतीयों को हवाई जहाज से देश में लाया जा सकता है, लाया जाना चाहिए था, तो देश के अन्दर परदेश में फंसे लोगों के लिए बस-गाड़ी की व्यवस्था क्यों नहीं की जानी चाहिए थी? आने वाले दिनों में उद्योगों को राहत दी जायेगी, दी जानी चाहिए और उस के लिए भी पैसे खर्च होंगे, फिर वंचितों, दिहाड़ीदार, बेघर और झुग्गीझोपड़ी में रहने वालों के लिए क्यों नहीं ऐसे उपाय किये जा सकते? क्या इसलिए कि वे न केवल गरीब हैं अपितु बेजुबान भी? ट्वीट नहीं कर सकते? जब तक यह रवैया रहेगा, तब तक इस महामारी से पार नहीं पाया जा सकता। निसंदेह स्थानीय प्रभावी उपायों से हम इस वायरस के खतरे को काफी कम कर सकते हैं। आधे-अधूरे उपायों से तालाबंदी की अवधि बढ़ेगी और इसका खमियाजा सबको भुगतना पड़ेगा। किसी को कम, किसी को ज्यादा।
कोरोना से लड़ने की आधी-अधूरी कवायद